Saturday 12 December 2015

तुम धरती की अफ़सरा लगती हों

यूँ बहाने बनाकर तुम रोज़ ,
खिड़की पर आती हों !
नज़रो से नज़र मिलाकर चुराती हों ,
लगता हैं जैसे तुम भी हमपर मरती हों !

मेरे इश्क़ का यूँ तुम ,
इम्तिहान न लो !
आजाओ पास ज़रा ,
यूँ हमें तुम परेशान न करों !

यूँ सज सँवरकर आज ,
तुम जो निकली हों !
लगता हैं जैसे ,
क़त्ल करने तुम आइ हों !

शाम की किरणो में ,
तू और निखर आइ हैं !
जैसे कोई नदी ख़ुद चलकर ,
प्यासे से मिलने आइ हैं !

इस गुज़रती शाम में ,
तुम और नशीली बन गई हों ,
मयखाने की क्या ज़रूरत ,
तेरे हुस्न की नशा चढ़ गई हैं !

यूँ ज़ुल्फ़ों को झटककर 
मूड के ना देखा करों ,
दिल पर चलती हैं छुरियाँ ,
यूँ होंठों से इशारे ना किया करो !

इस सफ़ेद कपड़े में आज ,
तुम हूर परी सी लगती हों !
तेरी मैं क्या तारिफ़ करूँ ,
तुम धरती की अफ़सरा लगती हों !

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